Bhaktamar Stotra Lyrics

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Bhaktamar Stotra (Hindi) | Ravindra Jain and Sadhana Sargam
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Bhaktamar Stotra Lyrics in Hindi

|| भक्तामर स्तोत्र ||

आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार।
धरम-धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार॥

सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करैं,
अंतर पाप-तिमिर सब हरैं।

जिनपद बंदों मन वच काय,
भव-जल-पतित उधरन-सहाय॥1॥

श्रुत-पारग इंद्रादिक देव,
जाकी थुति कीनी कर सेव।

शब्द मनोहर अरथ विशाल,
तिस प्रभु की वरनों गुन-माल॥2॥

विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन,
हो निलज्ज थुति-मनसा कीन।

जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहै,
शशि-मंडल बालक ही चहै॥3॥

गुन-समुद्र तुम गुन अविकार,
कहत न सुर-गुरु पावै पार।

प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु,
जलधि तिरै को भुज बलवन्तु॥4॥

सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ,
भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ।

ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेतु,
मृगपति सन्मुख जाय अचेत॥5॥

मैं शठ सुधी हँसन को धाम,
मुझ तव भक्ति बुलावै राम।

ज्यों पिक अंब-कली परभाव,
मधु-ऋतु मधुर करै आराव॥6॥

तुम जस जंपत जन छिनमाहिं,
जनम-जनम के पाप नशाहिं।

ज्यों रवि उगै फटै तत्काल,
अलिवत नील निशा-तम-जाल॥7॥

तव प्रभावतैं कहूँ विचार,
होसी यह थुति जन-मन-हार।

ज्यों जल-कमल पत्रपै परै,
मुक्ताफल की द्युति विस्तरै॥8॥

तुम गुन-महिमा हत-दुख-दोष,
सो तो दूर रहो सुख-पोष।

पाप-विनाशक है तुम नाम,
कमल-विकाशी ज्यों रवि-धाम॥9॥

नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत,
तुमसे तुम गुण वरणत संत।

जो अधीन को आप समान,
करै न सो निंदित धनवान॥10॥

इकटक जन तुमको अविलोय,
अवर-विषैं रति करै न सोय।

को करि क्षीर-जलधि जल पान,
क्षार नीर पीवै मतिमान॥11॥

प्रभु तुम वीतराग गुण-लीन,
जिन परमाणु देह तुम कीन।

हैं तितने ही ते परमाणु,
यातैं तुम सम रूप न आनु॥12॥

कहँ तुम मुख अनुपम अविकार,
सुर-नर-नाग-नयन-मनहार।

कहाँ चंद्र-मंडल-सकलंक,
दिन में ढाक-पत्र सम रंक॥13॥

पूरन चंद्र-ज्योति छबिवंत,
तुम गुन तीन जगत लंघंत।

एक नाथ त्रिभुवन आधार,
तिन विचरत को करै निवार॥14॥

जो सुर-तिय विभ्रम आरंभ,
मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ।

अचल चलावै प्रलय समीर,
मेरु-शिखर डगमगै न धीर॥15॥

धूमरहित बाती गत नेह,
परकाशै त्रिभुवन-घर एह।

बात-गम्य नाहीं परचण्ड,
अपर दीप तुम बलो अखंड॥16॥

छिपहु न लुपहु राहु की छांहि,
जग परकाशक हो छिनमांहि।

घन अनवर्त दाह विनिवार,
रवितैं अधिक धरो गुणसार॥17॥

सदा उदित विदलित मनमोह,
विघटित मेघ राहु अविरोह।

तुम मुख-कमल अपूरव चंद,
जगत-विकाशी जोति अमंद॥18॥

निश-दिन शशि रवि को नहिं काम,
तुम मुख-चंद हरै तम-धाम।

जो स्वभावतैं उपजै नाज,
सजल मेघ तैं कौनहु काज॥19॥

जो सुबोध सोहै तुम माहिं,
हरि हर आदिक में सो नाहिं।

जो द्युति महा-रतन में होय,
काच-खंड पावै नहिं सोय॥20॥

॥ नाराच ॥

सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया ।
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ॥

कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया ।
मनोग चित्त-चोर ओर भूल हू न पेखिया ॥21॥

अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं ।
न तो समान पुत्र और मात तें प्रसूत हैं ॥

दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिने ।
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जने ॥22॥

पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो ।
कहें मुनीश! अंधकार-नाश को सुभानु हो ॥

महंत तोहि जान के न होय वश्य काल के ।
न और मोहि मोक्ष पंथ देय तोहि टाल के ॥23॥

अनंत नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो ।
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ॥

महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो ।
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ॥24॥

तुही जिनेश! बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तें ।
तुही जिनेश! शंकरो जगत्त्रयी विधान तें ॥

तुही विधात है सही सुमोख-पंथ धार तें ।
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार तें ॥25॥

नमो करूँ जिनेश! तोहि आपदा निवार हो ।
नमो करूँ सु भूरि भूमि-लोक के सिंगार हो ॥

नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो ।
नमो करूँ महेश! तोहि मोख-पंथ देतु हो ॥26॥

॥ चौपाई ॥

तुम जिन पूरन गुन-गन भरे,
दोष गर्व करि तुम परिहरे ।

और देव-गण आश्रय पाय
स्वप्न न देखे तुम फिर आय ॥27॥

तरु अशोक-तल किरन उदार,
तुम तन शोभित है अविकार ।

मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत,
दिनकर दिपे तिमिर निहनंत ॥28॥

सिंहासन मणि-किरण-विचित्र,
ता पर कंचन-वरन पवित्र ।

तुम तन शोभित किरन विथार,
ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ॥29॥

कुंद-पुहुप-सित-चमर ढ़ुरंत,
कनक-वरन तुम तन शोभंत ।

ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति,
झरना झरे नीर उमगांति ॥30॥

ऊँचे रहें सूर-दुति लोप,
तीन छत्र तुम दिपें अगोप ।

तीन लोक की प्रभुता कहें,
मोती झालरसों छवि लहें ॥31॥

दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर,
चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर ।

त्रिभुवन-जन शिव-संगम करें,
मानो जय-जय रव उच्चरें ॥32॥

मंद पवन गंधोदक इष्ट,
विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट ।

देव करें विकसित दल सार,
मानो द्विज-पंकति अवतार ॥33॥

तुम तन-भामंडल जिन-चंद,
सब दुतिवंत करत हैं मंद ।

कोटि संख्य रवि-तेज छिपाय,
शशि निर्मल निशि करे अछाय ॥34॥

स्वर्ग-मोख-मारग संकेत,
परम-धरम उपदेशन हेत ।

दिव्य वचन तुम खिरें अगाध,
सब भाषा-गर्भित हित-साध ॥35॥

॥ दोहा ॥

विकसित-सुवरन-कमल-दुति,
नख-दुति मिलि चमकाहिं ।

तुम पद पदवी जहँ धरो,
तहँ सुर कमल रचाहिं ॥36॥

ऐसी महिमा तुम-विषै,
और धरे नहिं कोय ।

सूरज में जो जोत है,
नहिं तारा-गण होय ॥37॥

॥ षट्पद ॥

मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झँकारें ।
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारें ॥

काल-वरन विकराल कालवत् सनमुख आवे ।
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावे ॥

देखि गयंद न भय करे, तुम पद-महिमा लीन ।
विपति-रहित संपति-सहित, वरतैं भक्त अदीन ॥38॥

अति मद-मत्त गयंद कुंभ-थल नखन विदारे ।
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे ॥

बाँकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोले ।
भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोले ॥

ऐसे मृग-पति पग-तले, जो नर आयो होय ।
शरण गये तुम चरण की, बाधा करे न सोय ॥39॥

प्रलय-पवनकरि उठी आग जो तास पटंतर ।
वमे फुलिंग शिखा उतंग पर जले निरंतर ॥

जगत् समस्त निगल्ल भस्म कर देगी मानो ।
तड़-तड़ाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानो ॥

सो इक छिन में उपशमे, नाम-नीर तुम लेत ।
होय सरोवर परिनमे, विकसित-कमल समेत ॥40॥

कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलंता ।
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता ॥

फण को ऊँचा करे वेगि ही सन्मुख धाया ।
तव जन होय नि:शंक देख फणपति को आया ॥

जो चाँपे निज पग-तले, व्यापे विष न लगार ।
नाग-दमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ॥41॥

जिस रन माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम ।
घन-सम गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि-जंगम ॥

अति-कोलाहल-माँहिं बात जहँ नाहिं सुनीजे ।
राजन को परचंड देख बल धीरज छीजे ॥

नाथ तिहारे नाम तें, अघ छिन माँहि पलाय ।
ज्यों दिनकर परकाश तें, अंधकार विनशाय ॥42॥

मारें जहाँ गयंद-कुंभ हथियार विदारे ।
उमगे रुधिर-प्रवाह वेग जल-सम विस्तारे ॥

होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे ।
तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे ॥

दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावें निकलंक ।
तुम पद-पंकज मन बसें, ते नर सदा निशंक ॥43॥

नक्र चक्र मगरादि मच्छ-करि भय उपजावे ।
जा में बड़वा अग्नि दाह तें नीर जलावे ॥

पार न पावे जास थाह नहिं लहिये जाकी ।
गरजे अतिगंभीर लहर की गिनति न ताकी ॥

सुख सों तिरें समुद्र को, जे तुम गुन सुमिराहिं ।
लोल-कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ॥44॥

महा जलोदर रोग-भार पीड़ित नर जे हैं ।
वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहे हैं ॥

सोचत रहें उदास नाहिं जीवन की आशा ।
अति घिनावनी देह धरें दुर्गंधि-निवासा ॥

तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावें निज-अंग ।
ते नीरोग शरीर लहि, छिन में होंय अनंग ॥45॥

पाँव कंठ तें जकड़ बाँध साँकल अतिभारी ।
गाढ़ी बेड़ी पैर-माहिं जिन जाँघ विदारी ॥

भूख-प्यास चिंता शरीर-दु:ख जे विललाने ।
सरन नाहिं जिन कोय भूप के बंदीखाने ॥

तुम सुमिरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं ।
छिन में ते संपति लहें, चिंता भय विनसाहिं ॥46॥

महामत्त गजराज और मृगराज दवानल ।
फणपति रण-परचंड नीर-निधि रोग महाबल ॥

बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशे ।
तुम सुमिरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशे ॥

इस अपार-संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय ।
यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय ॥47॥

यह गुनमाल विशाल नाथ! तुम गुनन सँवारी ।
विविध-वर्णमय-पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी ॥

जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें ।
‘मानतुंग’-सम निजाधीन शिवलक्ष्मी पावें ॥

भाषा-भक्तामर कियो, ‘हेमराज’ हित-हेत ।
जे नर पढ़ें सुभाव-सों, ते पावें शिव-खेत ॥48॥

Bhaktamar Stotra Lyrics in Sanskrit

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् |
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् |
सम्यक् प्रणम्य जिन-पाद-यु वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ||१||

य: संस्तुत: सकल-वाड़्मय-तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोकनाथै: |
स्तोत्रैर्जगत् – त्रितय – चित्त – हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ||२||

बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् |
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ||३||

वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशांक-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या |
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रम्,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ||4||

सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्त: |
प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्,
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ||५||

अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम!
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् |
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु: ||६||

त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धम्,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्|
आक्रान्त-लोकमलि-नीलमशेषमाशु,
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ||७||

मत्त्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् |
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फलद्युतिमुपैति ननूद-बिन्दु: ||८||

आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषम्,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।।९।।

नात्यद्भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त: |
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ||१०||

दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयम्,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षु: |
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जल-निधे रसितुं क: इच्छेत् ||११||

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्त्वम्,
निर्मापितस्त्रिभुवनैक – ललाम – भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्याम्,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ||१२||

वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् |
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पांडु-पलाश-कल्पम् ||१३||

सम्पूर्ण-मंडल-शशांक-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति |
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकम्,
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ||१४||

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
र्नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् |
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ||१५||

निर्धूम – वर्तिरपवर्जित – तैल – पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि |
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानाम्,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाश: ||१६||

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति |
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ||१७||

नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारम्,
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् |
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्व-शशान्क-बिम्बम् ||१८||

किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सु नाथ |
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके,
कार्यं कियज्जलधरैर्जल-भार-नम्रै: ||१९||

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशम्, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु |
तेज: स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वम्,
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ||२०||

मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति |
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ||२१||

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता |
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिम्,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ||२२||

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्णममलं तमस: पुरस्तात् |
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युम्,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था: ||२३||

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यम्,
ब्रह्माण-मीश्वर-मनन्त-मनंगकेतुम् |
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकम्,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्त: ||२४||

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् |
धातासि धीर! शिवमार्ग-विधेर्विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ||२५||

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल-भूषणाय |
तुभ्यं नमस्त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ||२६||

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै-
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषैरुपात्त-विविधाश्रय – जात – गर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ||२७||

उच्चैरशोक – तरु – संश्रितमुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् |
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितानम्,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति ||२८||

सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् |
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता-वितानम्,
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ||२९||

कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभम्,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत-कान्तम् |
उद्यच्छ्शांक शुचि-निर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ||३०||

छत्र-त्रयं तव विभाति शशांककान्त-
मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् |
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभम्,
प्रख्यापयत्त्रिजगत: परमेश्वरत्वम् ||३१||

गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगमभूतिदक्ष: |
सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषक: सन्,
खे दुन्दुभिर्व्-नति ते यशस: प्रवादी ||३२||

मन्दार – सुन्दर – नमेरु – सुपारिजात-
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा |
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रयाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ||३३||

शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभाविभोस्ते,
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ति |
प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तर-भूरि – संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ||३४||

स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्या: |
दिव्य-ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य: ||३५||

उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ |
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति ||३६||

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!
धर्मोपदेशन – विधौ न तथा परस्य |
यादृक्प्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि ||३७||

श्च्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् |
ऐरावताभमिभ मुद्धतमापतन्तम्,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ||३८||

भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि-भाग: |
बद्ध-क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ||३९||

कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पम्,
दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम् |
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तम्,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ||४०||

रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् |
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शंक-
स्त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुंस: ||४१||

वल्गत्तुरंगगज-गर्जित-भीमनाद-
माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् |
उद्यद्दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धम्,
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ||४२||

कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार – तरणातुर – योध–भीमे |
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा-
स्त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते ||४३||

अम्भोनिधौक्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण – वाड़वाग्नौ |
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद् व्रजन्ति ||४४||

उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्ना:,
शोच्यां दशामुपगताश्च्युत-जीविताशा: |
त्वत्पाद-पंकज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहा,
मर्याna भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरूपा: ||४५||

आपाद-कण्ठमुरु-श्रृंखल-वेष्टितांगा:,
गाढं वृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघा: |
त्वन्नाम-मन्त्रमनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ||४६||

मत्तद्विपेन्द्र – मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् |
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमान धी ते ||४७||

स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् |
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्रम्,
तं ‘मानतुंग’मवशा समुपैति लक्ष्मी: ||४८||

।। इति श्रीमानतुङ्गाचार्य-विरचितं आदिनाथ-स्तोत्रं समाप्तम् ।।

Bhaktamar Stotra Lyrics in English

॥ Bhaktamar Stotra॥ 

Bhaktamara-pranata-maulimani-prabhana –
mudyotakam dalita-papa-tamovitanam |
samyak pranamya jina padayugam yugada-
valambanam bhavajale patatam jananam ॥ 1॥

yah sanstutah sakala-vangaya- tatva-bodha-
d -ud bhuta- buddhipatubhih suralokanathaih|
stotrairjagattritaya chitta-harairudaraih
stoshye kilahamapi tam prathamam jinendram ॥ 2॥

buddhya vinaapi vibudharchita padapitha
stotum samudyata matirvigatatrapoaham |
balam vihaya jalasansthitamindu bimba –
manyah ka ichchhati janah sahasa grahitum || 3 ||

vaktum gunan gunasamudra shashankkantan
kaste kshamah suragurupratimoapi buddhya |
kalpanta – kal – pavanoddhata – nakrachakram
ko va taritumalamambunidhim bhujabhyam || 4 ||

soaham tathapi tava bhakti vashanmunisha
kartum stavam vigatashaktirapi pravrittah |
prityaaatmaviryamavicharya mrigo mrigendram
nabhyeti kim nijashishoh paripalanartham || 5 ||

alpashrutam shrutavatam parihasadham
tvad bhaktireva mukharikurute balanmam |
yatkokilah kila madhau madhuram virauti
tachcharuchuta – kalikanikaraikahetu || 6||

tvatsanstavena bhavasantati – sannibaddham
papam kshanat kshayamupaiti sharira bhajam |
akranta – lokamalinilamasheshamashu
suryanshubhinnamiva sharvaramandhakaram || 7||

matveti nath! tav sanstavanam mayeda –
marabhyate tanudhiyapi tava prabhavat |
cheto harishyati satam nalinidaleshu
muktaphala – dyutimupaiti nanudabinduh || 8 ||

astam tava stavanamastasamasta – dosham
tvatsankathaapi jagatam duritani hanti |
dure sahastrakiranah kurute prabhaiva
padmakareshu jalajani vikashabhanji || 9||

natyad -bhutam bhuvana-bhushana bhutanatha
bhutaira gunair -bhuvi bhavantamabhishtuvantah
tulya bhavanti bhavato nanu tena kim va
bhutyashritam ya iha natmasamam karoti || 10 ||

drishtava bhavantamanimesha-vilokaniyam
nanyatra toshamupayati janasya chakshuh |
pitva payah shashikaradyuti dugdha sindhoh
ksharam jalam jalanidherasitum ka ichchhet || 11 ||

yaih shantaragaruchibhih paramanubhistavam
nirmapitastribhuvanaika lalama-bhuta|
tavanta eva khalu teapyanavah prithivyam
yatte samanamaparam na hi rupamasti || 12 ||

vaktram kva te suranaroraganetrahari
nihshesha – nirjita-jagat tritayopamanam |
bimbam kalanka-malinam kva nishakarasya
yad vasare bhavati pandupalashakalpam || 13 ||

sampurnamannala – shashankakalakalap
shubhra gunastribhuvanam tava langhayanti |
ye sanshritas -trijagadishvara nathamekam
kastan -nivarayati sancharato yatheshtam || 14 ||

chitram kimatra yadi te tridashanganabhir –
nitam managapi mano na vikara – margam |
kalpantakalamaruta chalitachalena
kim mandaradrishikhiram chalitam kadachit || 15 ||

nirdhumavartipavarjita – tailapurah
kritsnam jagattrayamidam prakati-karoshi |
gamyo na jatu marutam chalitachalanam
dipoaparastvamasi nath jagatprakashah || 16 ||

nastam kadachidupayasi na rahugamyah
spashtikaroshi sahasa yugapajjaganti |
nambhodharodara – niruddhamahaprabhavah
suryatishayimahimasi munindra! loke || 17 ||

nityodayam dalitamohamahandhakaram
gamyam na rahuvadanasya na varidanam |
vibhrajate tava mukhabjamanalpa kanti
vidyotayajjagadapurva – shashankabimbam || 18 ||

kim sharvarishu shashinaahni vivasvata va
yushmanmukhendu – daliteshu tamassu natha
nishmanna shalivanashalini jiva loke
karyam kiyajjaladharair – jalabhara namraih || 19 ||

gyanam yatha tvayi vibhati kritavakasham
naivam tatha hariharadishu nayakeshu
tejah sphuranmanishu yati yatha mahatvam
naivam tu kacha – shakale kiranakuleapi || 20 ||

manye varam hari-haradaya eva drishta
drishteshu yeshu hridayam tvayi toshameti |
kim vikshitena bhavata bhuvi yena nanyah
kashchinmano harati natha! bhavantareapi || 21 ||

strinam shatani shatasho janayanti putran
nanya sutam tvadupamam janani prasuta|
sarva disho dadhati bhani sahastrarashmim
prachyeva dig janayati sphuradanshujalam || 22 ||

tvamamananti munayah paramam pumansa-
madityavarnamamalam tamasah parastat |
tvameva samyagupalabhya jayanti mrityum
nanyah shivah shivapadasya munindra! panthah || 23 ||

tvamavyayam vibhumachintyamasankhyamadyam
brahmanamishvaramanantamanangaketum
yogishvaram viditayogamanekamekam
gyanasvarupamamalam pravadanti santah || 24 ||

buddhastvameva vibudharchita buddhi bodhat,
tvam shankaroasi bhuvanatraya shankaratvat |
dhataasi dhira ! shivamarga-vidhervidhanat ,
vyaktam tvameva bhagavan ! purushottamoasi || 25 ||

tubhyam namastribhuvanartiharaya natha |
tubhyam namah kshititalamalabhushanaya |
tubhyam namastrijagatah parameshvaraya,
tubhyam namo jina ! bhavodadhi shoshanaya || 26 ||

ko vismayoatra yadi nama gunairasheshais –
tvam sanshrito niravakashataya munisha!
doshairupatta vividhashraya jatagarvaih,
svapnantareapi na kadachidapikshitoasi || 27 ||

uchchairashoka-tarusanshritamunmayukha-
mabhati rupamamalam bhavato nitantam |
spashtollasatkiranamasta-tamovitanam
bimbam raveriva payodhara parshvavarti || 28 ||

simhasane manimayukhashikhavichitre,
vibhrajate tava vapuh kanakavadatam |
bimbam viyadvilasadanshulata – vitanam,
tungodayadri – shirasiva sahastrarashmeh || 29 ||

kundavadata – chalachamara – charushobham,
vibhrajate tava vapuh kaladhautakantam |
udyachchhashanka – shuchinirjhara – varidhara-,
muchchaistatam sura gireriva shatakaumbham || 30 ||

chhatratrayam tava vibhati shashankakanta-
muchchaih sthitam sthagita bhanukara – pratapam |
muktaphala – prakarajala – vivriddhashobham,
prakhyapayattrijagatah parameshvaratvam || 31 ||

gambhirataravapurita – digvibhagas –
trailokyaloka – shubhasangama bhutidakshah |
saddharmarajajayaghoshana – ghoshakah san ,
khe dundubhirdhvanati te yashasah pravadi || 32 ||

mandara – sundaranameru – suparijata
santanakadikusumotkara-vrishtiruddha |
gandhodabindu – shubhamanda – marutprapata,
divya divah patati te vachasam tatirva || 33 ||

shumbhatprabhavalaya – bhurivibha vibhoste,
lokatraye dyutimatam dyutimakshipanti |
prodyad -divakara – nirantara bhurisankhya
diptya jayatyapi nishamapi soma-saumyam || 34 ||

svargapavargagamamarga – vimarganeshtah,
saddharmatatvakathanaika – patustrilokyah |
divyadhvanirbhavati te vishadarthasatva
bhashasvabhava – parinamagunaih prayojyah || 35 ||

unnidrahema – navapankaja – punjakanti,
paryullasannakhamayukha-shikhabhiramau |
padau padani tava yatra jinendra ! dhattah
padmani tatra vibudhah parikalpayanti || 36 ||

ttham yatha tava vibhutirabhujjinendra,
dharmopadeshanavidhau na tatha parasya |
yadrik prabha dinakritah prahatandhakara,
tadrik -kuto grahaganasya vikashinoapi | 37 ||

shchyotanmadavilavilola-kapolamula
mattabhramad -bhramaranada – vivriddhakopam |
airavatabhamibhamuddhatamapatantan
drisht va bhayam bhavati no bhavadashritanam || 38 ||

bhinnebha – kumbha – galadujjavala – shonitakta,
muktaphala prakara – bhushita bhumibhagah |
baddhakramah kramagatam harinadhipoapi,
nakramati kramayugachalasanshritam te || 39 ||

kalpantakala – pavanoddhata – vahnikalpam,
davanalam jvalitamujjavalamutsphulingam |
vishvam jighatsumiva sammukhamapatantam,
tvannamakirtanajalam shamayatyashesham || 40 ||

raktekshanam samadakokila – kanthanilam,
krodhoddhatam phaninamutphanamapatantam |
akramati kramayugena nirastashankas –
tvannama nagadamani hridi yasya punsah || 41 ||

valgatturanga gajagarjita – bhimanada-
majau balam balavatamapi bhupatinam !
udyaddivakara mayukha – shikhapaviddham,
tvat -kirtanat tama ivashu bhidamupaiti || 42 ||

kuntagrabhinnagaja – shonitavarivaha
vegavatara – taranaturayodha – bhime |
yuddhe jayam vijitadurjayajeyapakshas –
tvatpada pankajavanashrayino labhante || 43 ||

ambhaunidhau kshubhitabhishananakrachakra-
pathina pithabhayadolbanavadavagnau
rangattaranga – shikharasthita – yanapatras –
trasam vihaya bhavatahsmaranad vrajanti || 44 ||

ud bhutabhishanajalodara – bharabhugnah
shochyam dashamupagatashchyutajivitashah |
tvatpadapankaja-rajoamritadigdhadeha,
martya bhavanti makaradhvajatulyarupah || 45 ||

apada – kanthamurushrrinkhala – veshtitanga,
gadham brihannigadakotinighrishtajanghah |
tvannamamantramanisham manujah smarantah,
sadyah svayam vigata-bandhabhaya bhavanti || 46 ||

mattadvipendra – mrigaraja – davanalahi
sangrama – varidhi – mahodara-bandhanottham |
tasyashu nashamupayati bhayam bhiyeva,
yastavakam stavamimam matimanadhite || 47 ||

stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham,
bhaktya maya vividhavarnavichitrapushpam |
dhatte jano ya iha kanthagatamajasram,
tam manatungamavasha samupaiti lakshmih || 48 ||

Bhaktamar Stotra Lyrics in Gujarati

(ભક્તામરસ્તોત્ર)

ભક્તામર-પ્રણત-મૌલિમણિ-પ્રભાણા –
મુદ્યોતકં દલિત-પાપ-તમોવિતાનમ્ .
સમ્યક્ પ્રણમ્ય જિન પાદયુગં યુગાદા-
વાલંબનં ભવજલે પતતાં જનાનામ્.. ૧..

યઃ સંસ્તુતઃ સકલ-વાઙ્મય- તત્વ-બોધા-
દ્-ઉદ્ભૂત- બુદ્ધિપટુભિઃ સુરલોકનાથૈઃ.
સ્તોત્રૈર્જગત્ત્રિતય ચિત્ત-હરૈરુદરૈઃ
સ્તોષ્યે કિલાહમપિ તં પ્રથમં જિનેન્દ્રમ્.. ૨..

બુદ્ધ્યા વિનાઽપિ વિબુધાર્ચિત પાદપીઠ
સ્તોતું સમુદ્યત મતિર્વિગતત્રપોઽહમ્ .
બાલં વિહાય જલસંસ્થિતમિન્દુ બિમ્બ –
મન્યઃ ક ઇચ્છતિ જનઃ સહસા ગ્રહીતુમ્ .. ૩..

વક્તું ગુણાન્ ગુણસમુદ્ર શશાઙ્ક્કાન્તાન્
કસ્તે ક્ષમઃ સુરગુરુપ્રતિમોઽપિ બુદ્ધ્યા .
કલ્પાન્ત – કાલ્ – પવનોદ્ધત – નક્રચક્રં
કો વા તરીતુમલમમ્બુનિધિં ભુજાભ્યામ્ .. ૪..

સોઽહં તથાપિ તવ ભક્તિ વશાન્મુનીશ
કર્તું સ્તવં વિગતશક્તિરપિ પ્રવૃત્તઃ .
પ્રીત્યઽઽત્મવીર્યમવિચાર્ય મૃગો મૃગેન્દ્રં
નાભ્યેતિ કિં નિજશિશોઃ પરિપાલનાર્થમ્ .. ૫..

અલ્પશ્રુતં શ્રુતવતાં પરિહાસધામ્
ત્વદ્ભક્તિરેવ મુખરીકુરુતે બલાન્મામ્ .
યત્કોકિલઃ કિલ મધૌ મધુરં વિરૌતિ
તચ્ચારુચૂત – કલિકાનિકરૈકહેતુ .. ૬..

ત્વત્સંસ્તવેન ભવસંતતિ – સન્નિબદ્ધં
પાપં ક્ષણાત્ ક્ષયમુપૈતિ શરીર ભાજામ્.
આક્રાન્ત – લોકમલિનીલમશેષમાશુ
સૂર્યાંશુભિન્નમિવ શાર્વરમન્ધકારમ્ .. ૭..

મત્વેતિ નાથ્! તવ્ સંસ્તવનં મયેદ –
મારભ્યતે તનુધિયાપિ તવ પ્રભાવાત્ .
ચેતો હરિષ્યતિ સતાં નલિનીદલેષુ
મુક્તાફલ – દ્યુતિમુપૈતિ નનૂદબિન્દુઃ .. ૮..

આસ્તાં તવ સ્તવનમસ્તસમસ્ત – દોષં
ત્વત્સંકથાઽપિ જગતાં દુરિતાનિ હન્તિ .
દૂરે સહસ્રકિરણઃ કુરુતે પ્રભૈવ
પદ્માકરેષુ જલજાનિ વિકાશભાંજિ .. ૯..

નાત્યદ્-ભૂતં ભુવન-ભુષણ ભૂતનાથ
ભૂતૈર ગુણૈર્-ભુવિ ભવન્તમભિષ્ટુવન્તઃ
તુલ્યા ભવન્તિ ભવતો નનુ તેન કિં વા
ભૂત્યાશ્રિતં ય ઇહ નાત્મસમં કરોતિ .. ૧૦..

દૃષ્ટવા ભવન્તમનિમેષ-વિલોકનીયં
નાન્યત્ર તોષમુપયાતિ જનસ્ય ચક્ષુઃ .
પીત્વા પયઃ શશિકરદ્યુતિ દુગ્ધ સિન્ધોઃ
ક્ષારં જલં જલનિધેરસિતું ક ઇચ્છેત્ .. ૧૧..

યૈઃ શાન્તરાગરુચિભિઃ પરમાણુભિસ્તવં
નિર્માપિતસ્ત્રિભુવનૈક લલામ-ભૂત.
તાવન્ત એવ ખલુ તેઽપ્યણવઃ પૃથિવ્યાં
યત્તે સમાનમપરં ન હિ રૂપમસ્તિ .. ૧૨..

વક્ત્રં ક્વ તે સુરનરોરગનેત્રહારિ
નિઃશેષ – નિર્જિત-જગત્ ત્રિતયોપમાનમ્ .
બિમ્બં કલઙ્ક-મલિનં ક્વ નિશાકરસ્ય
યદ્વાસરે ભવતિ પાંડુપલાશકલ્પમ્ .. ૧૩..

સમ્પૂર્ણમણ્ઙલ – શશાઙ્કકલાકલાપ્
શુભ્રા ગુણાસ્ત્રિભુવનં તવ લંઘયન્તિ .
યે સંશ્રિતાસ્-ત્રિજગદીશ્વર નાથમેકં
કસ્તાન્-નિવારયતિ સંચરતો યથેષ્ટમ્ .. ૧૪..

ચિત્રં કિમત્ર યદિ તે ત્રિદશાંગનાભિર્-
નીતં મનાગપિ મનો ન વિકાર – માર્ગમ્ .
કલ્પાન્તકાલમરુતા ચલિતાચલેન
કિં મન્દરાદ્રિશિખિરં ચલિતં કદાચિત્ .. ૧૫..

નિર્ધૂમવર્તિપવર્જિત – તૈલપૂરઃ
કૃત્સ્નં જગત્ત્રયમિદં પ્રકટી-કરોષિ .
ગમ્યો ન જાતુ મરુતાં ચલિતાચલાનાં
દીપોઽપરસ્ત્વમસિ નાથ્ જગત્પ્રકાશઃ .. ૧૬..

નાસ્તં કાદાચિદુપયાસિ ન રાહુગમ્યઃ
સ્પષ્ટીકરોષિ સહસા યુગપજ્જગન્તિ .
નામ્ભોધરોદર – નિરુદ્ધમહાપ્રભાવઃ
સૂર્યાતિશાયિમહિમાસિ મુનીન્દ્ર! લોકે .. ૧૭..

નિત્યોદયં દલિતમોહમહાન્ધકારં
ગમ્યં ન રાહુવદનસ્ય ન વારિદાનામ્ .
વિભ્રાજતે તવ મુખાબ્જમનલ્પ કાન્તિ
વિદ્યોતયજ્જગદપૂર્વ – શશાઙ્કબિમ્બમ્ .. ૧૮..

કિં શર્વરીષુ શશિનાઽહ્નિ વિવસ્વતા વા
યુષ્મન્મુખેન્દુ – દલિતેષુ તમસ્સુ નાથ
નિષ્મન્ન શાલિવનશાલિનિ જીવ લોકે
કાર્યં કિયજ્જલધરૈર્ – જલભાર નમ્રૈઃ .. ૧૯..

જ્ઞાનં યથા ત્વયિ વિભાતિ કૃતાવકાશં
નૈવં તથા હરિહરાદિષુ નાયકેષુ
તેજઃ સ્ફુરન્મણિષુ યાતિ યથા મહત્વં
નૈવં તુ કાચ – શકલે કિરણાકુલેઽપિ .. ૨૦..

મન્યે વરં હરિ-હરાદય એવ દૃષ્ટા
દૃષ્ટેષુ યેષુ હૃદયં ત્વયિ તોષમેતિ .
કિં વીક્ષિતેન ભવતા ભુવિ યેન નાન્યઃ
કશ્ચિન્મનો હરતિ નાથ! ભવાન્તરેઽપિ .. ૨૧..

સ્ત્રીણાં શતાનિ શતશો જનયન્તિ પુત્રાન્
નાન્યા સુતં ત્વદુપમં જનની પ્રસૂતા.
સર્વા દિશો દધતિ ભાનિ સહસ્રરશ્મિં
પ્રાચ્યેવ દિગ્ જનયતિ સ્ફુરદંશુજાલં .. ૨૨..

ત્વામામનન્તિ મુનયઃ પરમં પુમાંસ-
માદિત્યવર્ણમમલં તમસઃ પરસ્તાત્ .
ત્વામેવ સમ્યગુપલભ્ય જયંતિ મૃત્યું
નાન્યઃ શિવઃ શિવપદસ્ય મુનીન્દ્ર! પન્થાઃ .. ૨૩..

ત્વામવ્યયં વિભુમચિન્ત્યમસંખ્યમાદ્યં
બ્રહ્માણમીશ્વરમનન્તમનંગકેતુમ્
યોગીશ્વરં વિદિતયોગમનેકમેકં
જ્ઞાનસ્વરૂપમમલં પ્રવદન્તિ સન્તઃ .. ૨૪..

બુદ્ધસ્ત્વમેવ વિબુધાર્ચિત બુદ્ધિ બોધાત્,
ત્વં શંકરોઽસિ ભુવનત્રય શંકરત્વાત્ .
ધાતાઽસિ ધીર ! શિવમાર્ગ-વિધેર્વિધાનાત્,
વ્યક્તં ત્વમેવ ભગવન્! પુરુષોત્તમોઽસિ .. ૨૫..

તુભ્યં નમસ્ત્રિભુવનાર્તિહરાય નાથ .
તુભ્યં નમઃ ક્ષિતિતલામલભૂષણાય .
તુભ્યં નમસ્ત્રિજગતઃ પરમેશ્વરાય,
તુભ્યં નમો જિન ! ભવોદધિ શોષણાય .. ૨૬..

કો વિસ્મયોઽત્ર યદિ નામ ગુણૈરશેષૈસ્ –
ત્વં સંશ્રિતો નિરવકાશતયા મુનીશ!
દોષૈરૂપાત્ત વિવિધાશ્રય જાતગર્વૈઃ,
સ્વપ્નાન્તરેઽપિ ન કદાચિદપીક્ષિતોઽસિ .. ૨૭..

ઉચ્ચૈરશોક-તરુસંશ્રિતમુન્મયૂખ-
માભાતિ રૂપમમલં ભવતો નિતાન્તમ્ .
સ્પષ્ટોલ્લસત્કિરણમસ્ત-તમોવિતાનં
બિમ્બં રવેરિવ પયોધર પાર્શ્વવર્તિ .. ૨૮..

સિંહાસને મણિમયૂખશિખાવિચિત્રે,
વિભ્રાજતે તવ વપુઃ કનકાવદાતમ્ .
બિમ્બં વિયદ્વિલસદંશુલતા – વિતાનં,
તુંગોદયાદ્રિ – શિરસીવ સહસ્રરશ્મેઃ .. ૨૯..

કુન્દાવદાત – ચલચામર – ચારુશોભં,
વિભ્રાજતે તવ વપુઃ કલધૌતકાન્તમ્ .
ઉદ્યચ્છશાંક – શુચિનિર્ઝર – વારિધાર-,
મુચ્ચૈસ્તટં સુર ગિરેરિવ શાતકૌમ્ભમ્ .. ૩૦..

છત્રત્રયં તવ વિભાતિ શશાંકકાન્ત-
મુચ્ચૈઃ સ્થિતં સ્થગિત ભાનુકર – પ્રતાપમ્ .
મુક્તાફલ – પ્રકરજાલ – વિવૃદ્ધશોભં,
પ્રખ્યાપયત્ત્રિજગતઃ પરમેશ્વરત્વમ્ .. ૩૧..

ગમ્ભીરતારવપૂરિત – દિગ્વિભાગસ્-
ત્રૈલોક્યલોક – શુભસંગમ ભૂતિદક્ષઃ .
સદ્ધર્મરાજજયઘોષણ – ઘોષકઃ સન્,
ખે દુન્દુભિર્ધ્વનતિ તે યશસઃ પ્રવાદી .. ૩૨..

મન્દાર – સુન્દરનમેરૂ – સુપારિજાત
સન્તાનકાદિકુસુમોત્કર-વૃષ્ટિરુદ્ધા .
ગન્ધોદબિન્દુ – શુભમન્દ – મરુત્પ્રપાતા,
દિવ્યા દિવઃ પતિત તે વચસાં તતિર્વા .. ૩૩..

શુમ્ભત્પ્રભાવલય – ભૂરિવિભા વિભોસ્તે,
લોકત્રયે દ્યુતિમતાં દ્યુતિમાક્ષિપન્તી .
પ્રોદ્યદ્-દિવાકર – નિરન્તર ભૂરિસંખ્યા
દીપ્ત્યા જયત્યપિ નિશામપિ સોમ-સૌમ્યામ્ .. ૩૪..

સ્વર્ગાપવર્ગગમમાર્ગ – વિમાર્ગણેષ્ટઃ,
સદ્ધર્મતત્વકથનૈક – પટુસ્ત્રિલોક્યાઃ .
દિવ્યધ્વનિર્ભવતિ તે વિશદાર્થસત્વ
ભાષાસ્વભાવ – પરિણામગુણૈઃ પ્રયોજ્યઃ .. ૩૫..

ઉન્નિદ્રહેમ – નવપંકજ – પુંજકાન્તી,
પર્યુલ્લસન્નખમયૂખ-શિખાભિરામૌ .
પાદૌ પદાનિ તવ યત્ર જિનેન્દ્ર ! ધત્તઃ
પદ્માનિ તત્ર વિબુધાઃ પરિકલ્પયન્તિ .. ૩૬..

ઇત્થં યથા તવ વિભૂતિરભૂજ્જિનેન્દ્ર,
ધર્મોપદેશનવિધૌ ન તથા પરસ્ય .
યાદૃક્ પ્રભા દિનકૃતઃ પ્રહતાન્ધકારા,
તાદૃક્-કુતો ગ્રહગણસ્ય વિકાશિનોઽપિ . ૩૭..

શ્ચ્યોતન્મદાવિલવિલોલ-કપોલમૂલ
મત્તભ્રમદ્-ભ્રમરનાદ – વિવૃદ્ધકોપમ્ .
ઐરાવતાભમિભમુદ્ધતમાપતન્તં
દૃષ્ટ્વા ભયં ભવતિ નો ભવદાશ્રિતાનામ્ .. ૩૮..

ભિન્નેભ – કુમ્ભ – ગલદુજ્જવલ – શોણિતાક્ત,
મુક્તાફલ પ્રકર – ભૂષિત ભુમિભાગઃ .
બદ્ધક્રમઃ ક્રમગતં હરિણાધિપોઽપિ,
નાક્રામતિ ક્રમયુગાચલસંશ્રિતં તે .. ૩૯..

કલ્પાંતકાલ – પવનોદ્ધત – વહ્નિકલ્પં,
દાવાનલં જ્વલિતમુજ્જવલમુત્સ્ફુલિંગમ્ .
વિશ્વં જિઘત્સુમિવ સમ્મુખમાપતન્તં,
ત્વન્નામકીર્તનજલં શમયત્યશેષમ્ .. ૪૦..

રક્તેક્ષણં સમદકોકિલ – કણ્ઠનીલં,
ક્રોધોદ્ધતં ફણિનમુત્ફણમાપતન્તમ્ .
આક્રામતિ ક્રમયુગેન નિરસ્તશંકસ્-
ત્વન્નામ નાગદમની હૃદિ યસ્ય પુંસઃ .. ૪૧..

વલ્ગત્તુરંગ ગજગર્જિત – ભીમનાદ-
માજૌ બલં બલવતામપિ ભૂપતિનામ્ !
ઉદ્યદ્દિવાકર મયૂખ – શિખાપવિદ્ધં,
ત્વત્-કીર્તનાત્ તમ ઇવાશુ ભિદામુપૈતિ .. ૪૨..

કુન્તાગ્રભિન્નગજ – શોણિતવારિવાહ
વેગાવતાર – તરણાતુરયોધ – ભીમે .
યુદ્ધે જયં વિજિતદુર્જયજેયપક્ષાસ્-
ત્વત્પાદ પંકજવનાશ્રયિણો લભન્તે .. ૪૩..

અમ્ભૌનિધૌ ક્ષુભિતભીષણનક્રચક્ર-
પાઠીન પીઠભયદોલ્બણવાડવાગ્નૌ
રંગત્તરંગ – શિખરસ્થિત – યાનપાત્રાસ્-
ત્રાસં વિહાય ભવતઃસ્મરણાદ્ વ્રજન્તિ .. ૪૪..

ઉદ્ભૂતભીષણજલોદર – ભારભુગ્નાઃ
શોચ્યાં દશામુપગતાશ્ચ્યુતજીવિતાશાઃ .
ત્વત્પાદપંકજ-રજોઽમૃતદિગ્ધદેહા,
મર્ત્યા ભવન્તિ મકરધ્વજતુલ્યરૂપાઃ .. ૪૫..

આપાદ – કણ્ઠમુરૂશૃંખલ – વેષ્ટિતાંગા,
ગાઢં બૃહન્નિગડકોટિનિઘૃષ્ટજંઘાઃ .
ત્વન્નામમંત્રમનિશં મનુજાઃ સ્મરન્તઃ,
સદ્યઃ સ્વયં વિગત-બન્ધભયા ભવન્તિ .. ૪૬..

મત્તદ્વિપેન્દ્ર – મૃગરાજ – દવાનલાહિ
સંગ્રામ – વારિધિ – મહોદર-બન્ધનોત્થમ્ .
તસ્યાશુ નાશમુપયાતિ ભયં ભિયેવ,
યસ્તાવકં સ્તવમિમં મતિમાનધીતે .. ૪૭..

સ્તોત્રસ્ત્રજં તવ જિનેન્દ્ર ! ગુણૈર્નિબદ્ધાં,
ભક્ત્યા મયા વિવિધવર્ણવિચિત્રપુષ્પામ્ .
ધત્તે જનો ય ઇહ કંઠગતામજસ્રં,
તં માનતુંગમવશા સમુપૈતિ લક્ષ્મીઃ .. ૪૮..

Bhaktamar Stotra Lyrics Video Song in Gujarati

શ્રી ભક્તામર સ્તોત્ર - અનુરાધા પૌડવાલ || SHREE BHAKTAMAR STOTRA - ANURADHA PAUDWAL
Bhaktamar Stotra Lyrics Video Song in Gujarati

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Hi! I am Sonali. I am a teacher and I love to write and read. I also like to listen to good songs and review and write down the lyrics. I have three years of experience in writing lyrics. And I am posting this written song on Hinditracks.co.in website so that by reading the lyrics of this song you too can sing and make your heart happy.

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